मदर्स डे के दिन कहानी मनोरमा “दीदी” की… अपने बेटे को इलाज के लिए 300 रूपए नहीं होने की वजह से खोया! अब दिन हो या रात दूसरों के बच्चों की करती हैं हेल्प… मदद से काबिल हुए युवक में इन्हें दीखता हैं इनका अपना “सूरज”

भिलाई। “रुके तो चांद जैसी, चले तो हवाओं जैसी, मां ही है इस दुनिया में भगवान जैसी”, इस दुनिया में एक मां का ही दिल हैं जो होने अपनी ममता की ताकत से किसी भी बच्चें का दुःख, दर्द समझ सकती हैं। मदर्स डे में आज दूसरी कहानी भिलाई निवासी 49 वर्षीया मनोरमा शर्मा की हैं, इन्हें प्यार से लोग “दीदी” भी कहते हैं। कभी खुद जिंदगी जीने की उम्मीद त्याग चुकी मनोरमा आज सैकड़ों माताओं का सहारा है। उनके हर दुख-दर्द में ये खड़ी रहती है। उन्हें जीने की नई राह दिखाने के साथ-साथ, उनके बेटे-बेटियों का इलाज कराना हो या उच्च ​शिक्षा या फिर शादी क्यों न हो। मनोरमा दीदी हर बेसहारा और जरूरतमंद माताओं की आर्थिक मदद के लिए आगे रहती हों।

“मेरी मदद से काबिल हुए किसी और के बेटे में दीखता हैं सूरज”
बताया जाता यहीं कि, ऐसे काम के लिए वे आधी रात भी तत्पर रहती हैं। देर रात या आधी रात कोई दरवाजा खटखटाकर 20-25 हजार मांगे तो मनोरमा ना नहीं कहती। एक वक्त ऐसा था जब मनोरमा के पास अपने बेटे सूरज के इलाज के लिए मात्र 300 रुपए नहीं थे, इस वजह से मनोरमा ने अपना इकलौते बेटा खो दिया था। वह दुख उसे आज भी दर्द देता है, पर अब वो ये दर्द दूसरी माताओं की मदद कर कम करती हैं। वे बताते हैं कि, जब उसकी मदद से किसी गरीब मां का बीमार बेटा स्वस्थ हो जाता है, अच्छा पढ़-लिखकर ​काबिल इंसान बन जाता है, या फिर अपनी घर-गृहस्थी बसा लेता है, तो उसे लगता है यही उसका बेटा सूरज है।

4 साल में गुजर गए उसके पति, बेटी और बेटा
आपको बता दें, शादी के कुछ साल बाद ही मनोरमा शर्मा पर दुखों का मानो सैलाब आ गया। एकाएक चार साल में पूरा परिवार खत्म हो गया। वर्ष 1997 में पहले पति चल बसा। फिर वर्ष 2000 में बेटी चंदा और सालभर के भीतर वर्ष 2001 में इकलौते बेटे सूरज की भी मौत हो गई। पूरी तरह टूट चुकी मनोरमा जिंदगी से हताश हो चुकी थी। उन्हें खुद भी जीने की इच्छा नहीं रही। तब पड़ोस में रहने वाली बी पोलम्मा उनका सहारा बनी। आत्मघाती कदम न उठा ले इसलिए सदैव अपने साथ रखती। उन्हें समूह से जोड़ी और सिलाई-कढ़ाई के जरिए व्यस्त रखने की कोशिश की। धीरे-धीरे मनोरमा दुख से उबरने लगी। आज वह अपने जैसी सैकड़ों महिलाओं का सहारा है। पूरे कैंप क्षेत्र में मनोरमा को महिलाएं अब दीदी के नाम से जानती हैं।

बेटे के लिए डॉक्टर की फीस देने नहीं थे 300 रुपए
मनोरमा के बेटे को दिल में तकलीफ थी। शहर के एक विशेषज्ञ के पास उसका इलाज चल रहा था। एक दिन तबियत अचानक बहुत ज्यादा बिगड़ गई। तत्काल अस्पताल ले जाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। डॉक्टर की फीस देने 300 रुपए के लिए वह दर-दर भटकती रही। लेकिन कहीं मदद नहीं मिली। आखिर में बेटे की मौत हो गई। मनोरमा कहती है, जो उनके साथ हुआ भगवान न करे किसी और मां को वैसा दुर्दिन देखना पड़े। मनोरमा बिलकुल भी पढ़ी-लिखी नहीं थी। साक्षरता अभियान के दौरान अक्षर ज्ञान हुआ। प्रौढ़ शिक्षा के जरिए 85 फीसदी अंकों के साथ पांचवीं पास की। इससे उनको हौसला मिला।

मुफ्त में सिखाती सिलाई-कढ़ाई का हुनर
अपने सिलाई-कढ़ाई के काम को आगे बढ़ाती गई। श्रमिक बहुल कैंप क्षेत्र की महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए उन्हें भी सिखाया। आज भी वे सब हुनर मुफ्त में सिखाती हैं। आज मनोरमा महिला सोसाइटी का संचालन कर रही है। करीब 50 सदस्य हैं। हर महीने डेढ-डेढ़ हजार रुपए जमा करती हैं। किसी को 20-25 हजार रुपए की जरूरत हो तो मनोरमा दीदी का दरवाजा हमेशा खुला रहता है। ऐसी 200 से भी अधिक महिलाओं की मदद मनोरमा अपने समूह के माध्यम से कर चुकी है।

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