गांधी जयंती के दिन सत्याग्रह 2.0 बाय एनिमल राइट्स एक्टिविस्ट इन रायपुर: जानवरों के उपयोग, शोषण और हत्या को समाप्त करने युवाओं नें देश के 10 शहरों में किया अनशन; बापू ने कहा था- “किसी देश की महानता और उसकी नैतिक उन्नति का अंदाजा हम वहां जानवरों के साथ…”

  • बापू ने कहा था- “किसी देश की महानता और उसकी नैतिक उन्नति का अंदाजा हम वहां जानवरों के साथ होने वाले व्यवहार से लगा सकते हैं”

रायपुर। राष्ट्रपिता महातम गांधी जी के 155वीं जयंती के अवसर पर, पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने करोड़ों जानवरों के अन्यायपूर्ण उपयोग पर ध्यान आकर्षित करने और वीगनिज्म को बढ़ावा देने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया। सत्याग्रह 2.0 नामक इस कार्यक्रम में 10 से अधिक शहरों से भागीदारी देखी गई और यह एक शांतिपूर्ण, शिक्षाप्रद प्रदर्शन था जिसका उद्देश्य भोजन, कपड़े, मनोरंजन, वैज्ञानिक प्रयोग आदि के लिए शोषण किए गए जानवरों की याद में अहिंसा के सिद्धांतों को फिर से जागृत करना था।

प्रतिभागियों ने 12 घंटे तक उपवास किया और पैदल यात्रा के दौरान सैकड़ो राहगीरों से बातचीत की। वीगन इंडिया मूवमेंट के सहयोग से वीगन्स ऑफ छत्तीसगढ़ द्वारा संचालित इस अभियान का यह तीसरा वर्ष था। कार्यकर्ताओं को संदेशों से भरी तख्तियां ले जाते हुए देखा गया, जिसमे ”अहिंसा की शुरुआत आपकी थाली से” और “पशु पदार्थ: भोजन नहीं, हिंसा है”, “पशु की पीड़ा कैसी है, इंसान की पीड़ा जैसी है” जैसे संदेशों वाली तख्तियां शामिल थी। कार्यक्रम स्थल पर लोगों ने कविताएँ पढ़ीं, भाषण दिए और विभिन्न उद्योगों में जानवरों की दुर्दशा का प्रदर्शन करने वाले वीडियो दिखाए।

आयोजक आनंदिता दत्ता ने कहा कि, ”मांस का व्यापार करने वाले सभी उद्योग, चाहे वह मुर्गियां, मछली, बकरी, गाय या सूअर हों, इन जानवरों को उनके प्राकृतिक जीवनकाल के एक छोटे अंश में ही मार देते हैं। उस भयानक आतंक की कल्पना करें जब वे कसाई की कतार में अगले हों और उन्होंने देखा हो कि उनके अन्य साथियों के साथ क्या किया जा रहा है। हम कुछ जानवरों को धुंधले चश्मे से देखते हैं। कुछ को साथी माना जाता है, जबकि अन्य जो समान रूप से संवेदनशील होते हैं उन्हें भोजन माना जाता है। यह पूर्वाग्रह का एक रूप है जिसे प्रजातिवाद कहा जाता है, और यही है जिसे हम अपने प्रयासों के माध्यम से उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं। एक गाय या भैंस या भेड़ या मुर्गा या अंडा उदद्योग में मार दिया जाने वाला नर चूज़ा वही दर्द या खुशी महसूस करने में सक्षम है जो एक कुत्ता या बिल्ली महसूस कर सकते है।

उन्होंने कहा कि, “अंडा उद्योग भी अविश्वसनीय रूप से शोषणकारी है। मुर्गियों को भयानक परिस्थितियों में पिंजरे में रखा जाता है और उनसे एक साल में 300 अंडे तक पैदा करवाए जाते है, जबकि प्राकृतिक तौर पर वह 15 से अधिक अंडे नहीं पैदा करती। प्रक्रिया हैचरी से शुरू होती है, जहां पहला कदम लिंग के आधार पर चूजों को छांटना है। नर चूजों को बेकार माना जाता है, और अंडे सेने के तुरंत बाद ग्राइंडर में जिंदा फेंककर या अन्य तरीकों जैसे दम घोटकर या गरम पानी में डुबोकर मार दिया जाता है। हममें से अधिकांश लोग इन मानक प्रक्रियाओं से अनजान हैं और इस गलत धारणा को पाले हुए हैं कि अंडे और दूध में कोई क्रूरता नहीं है।”

उनके अनुसार, “डेयरी का उपयोग इतना सामान्य हो गया है कि हम इस पर सवाल ही नहीं उठाते। हम शायद ही कभी इस बात पर एक पल भी सोचते हैं कि दूध कहां से आया, इसका उत्पादन कैसे हुआ और यह किसके लिए था। ये बुनियादी प्रश्न डेयरी के मूल मुद्दे की ओर इशारा करते हैं – कि गाय का दूध हमारे लिए नहीं है। लोग यह भूल जाते हैं कि गायें/भैसें भी हमारी ही तरह माँ हैं जो जन्म देने के बाद केवल अपनी संतान के लिए दूध पैदा करती हैं।”

टीम की सदस्य एवं मेडिकल छात्रा अंकिता टंडन ने कहा कि, “मैं कई गौशालाओं और फार्म्स में गयी हूं और इस मुद्दे पर सभी वर्गों के लोगों से बातचीत की है। एक गलत धारणा गहराई तक व्याप्त है कि गाय और भैंस जीवन भर दूध देती हैं और हम जो उपभोग करते हैं वह केवल अधिशेष होता है। इस चक्र को चालू रखने के लिए मादा जानवरों को लगातार गर्भावस्था की स्थिति में रखा जाता है और बाद में केवल 6-8 साल की उम्र में बूचड़खानों को बेच दिया जाता है। नर बछड़ों को जन्म के तुरंत बाद छोड़ दिया जाता है या बेच दिया जाता है। गर्भधारण के लिए वीर्य इकट्ठा करने के लिए सांडों का वर्षों तक शोषण किया जाता है और उसके बाद उन्हें काट दिया जाता है। डेयरी उद्योग के “अनुपयोगी” जानवर गोमांस और चमड़ा उद्योग को सहारा देते हैं।

अंत में प्रतिभागी मयंक ने अनुरोध किया कि, ”प्रत्येक पशु उद्योग में पशुओं को अप्राकृतिक रूप से जबरन पैदा किया जाता है एवं रोजाना अंटीबीओटिक और ग्रोथ हॉर्मोन्स की सुइयां लगाई जाती है ताकि उनकी आबादी और पैदावार बढ़ाया जा सके। मैं हर किसी को इस जानकारी को देखने और खुद से पूछने के लिए प्रोत्साहित करता हूं कि क्या यह उचित है। क्या हम इन फार्म के पशुओं की जगह खुद रहना चाहेंगे? यह एक क्रूर चक्र है जो उनके अधिकारों का पूर्ण उल्लंघन है; जिसमें हम चाय की हर चुस्की, मांस या पनीर के हर टुकड़े के साथ योगदान देते हैं। इसी तरह की भयावह प्रथाएँ हर पशु उद्योग का हिस्सा हैं। पशु उत्पाद मानव स्वास्थ्य के लिए आवश्यक नहीं हैं। हमें इन सभी उद्योगों में फंसे जानवरों को ध्यान में रखना चाहिए, और यह भी की वे उत्पाद नहीं हैं। वे जीवित प्राणी हैं जिन्हें बहुत लंबे समय से उनकी स्वतंत्रता से वंचित रखा गया है।”

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